Climate Change Effects in Indian Agriculture |
वर्तमान विश्व में मानव जनित और भौगोलिक कारणों के चलते इस समय जलवायु अनिश्चित सी हो गयी है. यह अनिश्चितता आने वाले कई सालों तक देखने को मिल सकता है. गर्मियां बढती जा रही हैं और ठण्ड कम होती जा रही है. अलनीनो संकट बना ही रहता है. बरसात समय से पहले दस्तक दे जा रही है और पूर्व तय मानसून के समय सूखे की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है. एक तरफ बारिस से बाढ़ की स्थिति बन रही है तो दूसरी तरफ किसान आसमान की तरफ टकटकी लगाये बारिस की बूंदों का इंतजार करता रह जा रहा है और उसकी खेत में खड़ी फसल सूख जा रही है. अगर गौर करे तो यह दिखता है की मौसम में बदलाव का दौर जारी है और निश्चित प्रतिमान सुनिश्चित होने में अभी वक्त लग सकता है.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मानव की बढ़ती महत्वकांक्षा के चलते बढ़ते औद्योगिकरण एवं बढ़ते वाहनों की संख्या से ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में इजाफा हुआ है. जिससे तापमान वृद्दि और बरसात के दिनों में कमी आई है.
हालांकि, जलवायु परिवर्तन से होनेवाले नुकसान पर नियंत्रण के बड़े-बड़े वैश्विक दावे भी किए जा रहे हैं. लेकिन इन सबके बावजूद प्रकृति में बदलाव को रोका नहीं जा सका है. प्रभाव साफ हैं कि मानसून का चक्र बिगड़ रहा है. मौसम का मिजाज बदल रहा है. इसका असर दूरदराज तक गांवों, खेत-खलिहानों तक में हो रहा है. सबसे अधिक प्रभाव तो कृषि पर पड़ रहा है, जहां परंपरागत रूप से उत्पादित होती आ रहीं बड़ी संख्या में फसलों का नामो-निशान तक मिट गया है. कम पानी और रासायनिक खादों के बिना पैदा होने वाली कई फसलें समाप्त हो चुकी हैं और उसकी जगह नई फसलों ने ले लिया है. इनमें बड़ी मात्रा में रासायनिक खादों, कीटनाशकों, परिमाजिर्त बीजों और सिंचाई की जरूरत पड़ती है. इससे खेती का खर्च बढ़ा है और खेती के तरीके मे बदलाव आया है. इसका सीधा असर ग्रामीण कृषक समाज के जीवन स्तर और रहन-सहन पर पड़ रहा है. खेती घाटे का सौदा बनने के चलते किसान अन्य धंधों की ओर जाने को विवश हुआ है. खेती में उपज तो बढ़ी लेकिन लागत कई गुना अधिक हो गई, जिससे अधिशेष यानी, माजिर्न का संकट पैदा हो गया. गर्मी, जाड़े और बरसात के मौसम में कुछ फेरबदल से फसलों की बुबाई, सिंचाई और कटाई का मौसम बदला और जल्दी खेती करने के दवाब में पशुओं को छोड़ मोटर चालित यंत्रों पर निर्भरता आई. उसपे सरकार द्वारा उचित प्रोत्साहन न मिलने के चलते छोटे किसान असंगत मशीनरी द्वारा कृषि कार्य करने के लिए मजबूर हुए और वे कर्ज के जाल में फसते चले गए. इनका परिणाम हुआ कि पूरी तरह किसानी पर निर्भर रहनेवाला समाज बुरी तरह से ध्वस्त हो गया. क्योंकि खेती घाटे का सौदा हो गया. अब हर परिवार को खेती के अलावा कोई दूसरा काम करना मजबूरी हो गई.
एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार 1971-81 के दशक के बाद वर्षा के औसत में गिरावट आई है। मानसून की वर्षा में अनियमितता बढ़ रही है, खंड वृष्टि भी बढ़ रही है. मानसून वर्षा का आगमन सामान्य में 100 मिमी. जल्दी की तरफ बढ़ रहा है. साथ ही साथ इसकी सक्रिय समयावधि भी बढ़ रही है. शीतकालीन वर्षा के औसत में कमी आई है, जबकि मानसून पूर्व की वर्षा का औसत बढ़ रहा है. पिछले कई वर्षों से मौसम की असामान्य परिस्थितियां बढ़ गई हैं. जैसे एक ही दिन में अत्यधिक वर्षा, पाला, सूखे का अंतराल, फरवरी, मार्च माह में तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि, मार्च-अप्रैल माह में तेज बारिश, ओला वृष्टि होने लगी है. सबसे अहम समस्या तो तूफानों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। तूफानों के कारण जनजीवन पर प्रभाव पड़ ही रहा है, पर फसलें बरबाद होने लगी हैं.
वर्ष 2001 में मानसून के समय में बदलाव की वजह से 51 प्रतिशत तक कृषि भूमि प्रभावित हुई थी. तापमान के बढ़ने से रबी की फसलों का जब पकने का समय आया है तब तापमान में तीव्र वृद्धि से फसलों में एकदम बालियां आ गई जिससे गेहूँ व चने की फसलों के दाने बहुत पतले हो गए व उत्पादकता घट गई. अबकी भी यही हुआ जब गेहूं के पकने का समय आया तब बारिस और ओले से तैयार फसल तो गिरदावरी का शिकार बन गयी. खेतों में पानी रुकने से गेहूं की बाल काली पड़ गयी और उसमें रोग लग गया. जो गेहूं पके नहीं थे और कहर से बच गए वह बारिस की वजह से तापमान गिरने से उनमें दाने बहुत पतले पड़े या पड़े ही नहीं.
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जलवायु परिवर्तन के इस खतरे को न तो किसान और न ही सरकार कम कर सकती है. अतः जलवायु परिवर्तन के संकट से बचने और बचाने का प्रयास होना चाहिए. किसान और सरकार दोनों को मिल कर आगे बढ़ना होगा. सरकार को जहाँ देश के खाद्यान्न निर्भरता के लिए किसानों का साथ देना चाहिए वहीँ किसानों को उन्नत एवं संगत तकनीकी की मदद से परंपरागत खेती से हट कर कम दिनों वाली नकद फसल की तरफ कदम बढ़ाने होंगे. जिससे एकाध फसल नष्ट होने पर किसानों के सामने आत्महत्या के आलावा भी रास्ता बचा रहे.
जैविक एवं समग्रित खेती :- खेतों में रासायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहाँ एक ओर मृदा की उत्पादकता घटती है वहीं दूसरी ओर इनकी मात्रा भोजन श्रृंखला के माध्यम से मानव के शरीर में पहूँच जाती है. जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती हैं. रासायनिक खेती से हरित गैसों के उत्सर्जन में भी हिजाफा होता है. अत: हमें जैविक खेती, जीरो बजटया प्राकृतिक खेती करने की तकनिकों पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए. उर्वरक की जगह कम्पोस्ट खाद, केंचुआ खाद, रासायनिक कीटनाशक की जगह नीम के पेस्ट आदि का प्रयोग होना चाहिए.
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एकल कृषि की बजाय हमें समग्रित कृषि करनी चाहिए. एकल कृषि में जहाँ जोखिम अधिक होता है वहीं समग्रित कृषि में जोखिम कम होता है. समग्रित खेती में अनेकों फसलों का उत्पादन किया जाता है जिससे यदि एक फसल किसी प्रकोप से समाप्त् हो जाए तो दूसरी फसल से किसान की रोजी रोटी चल सकती है. उचित मिश्रित फसलों को लेने पर फसलों की जड़े अलग-अलग स्तर से उचित खुराक ले लेती हैं एवं सहअस्तित्व के आधार पर रोगों एवं कीटों से बचाव तथा नाइट्रोजन का बटवारा कर लेती है. उचित फसल चक्र अपनाने से भूमि को नाइट्रोजन स्वतः ही प्राप्त हो जायेगा. ऊपर से यूरिया देने की आवश्यकता नहीं होगी. अधिक उर्वरक के कारण पंजाब के बंजर होते जा रहे खेत की स्थिति पूरे भारतवर्ष में किसी से छुपी नहीं है.
नकद फसल:- किसानों को अब परंपरागत खेती के बजाय कम दिनों में होने वाली नकद फसलों की तरफ रुझान करना चाहिए. नकद फसल की खेती से किसान भाई सब्जी, फूल, बागवानी कृषि कर सकते हैं. नकद फसल में किसान भाई साल में चार फसलें ले सकते हैं. नकद फसल मौसम से ज्यादा प्रभावित भी नहीं होती क्योंकि इनका फसल चक्र एक, दो या तीन महीने का होता है.
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किसानों को अब खेती के अपने पुराने तरीके बदलने होंगे. उन्हें परंपरागत खेती के साथ सह-खेती, बहुखेती और नकद खेती की तरफ कदम बढ़ाने होंगे. उद्यान खेती और कृषि में जोखिम कम होने के कारण किसानों को इसकी खेती करनी चाहिए. खेती में जैविक तत्वों का प्रयोग करें जिससे खेती पर लागत कम आए और फसल के उचित दाम भी बाजार से मिल सके तथा भूमि की उर्वरकता भी बनी रहे साथ ही उर्वरकों, कीटनाशकों और खर-पतवारनाशी पर होने वाला खर्च भी बचेगा.
फसली संयोजन में परिवर्तन :- जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हमें फसलों के प्रारूप एवं उनके बोने के समय में भी परिवर्तन करना पड़ेगा. मिश्रित खेती व इंटरक्रापिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटा जा सकता है. कृषि वानिकी अपनाकर भी हम जलवायु परितर्वन के खतरों से निजात पा सकते हैं.
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से भारतीय कृषि को बचाने के लिए हमें अपने संसाधनों का न्यायसंगत इस्तेमाल करना होगा व भारतीय जीवन दर्शन को अपनाकर हमें अपने पारम्परिक ज्ञान को अमल में लाना पड़ेगा. अब इस बात की सख्त जरूरत है कि हमें खेती में ऐसे पर्यावरण मित्र तरीकों को अहमियत देनी होगी जिनसे हम अपनी मृदा की उत्पादकता को बरकरार रख सकें व अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचा सकें.
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फसल उत्पादन में नई तकनिकों का विकास :- जलवायु परिवर्तन के गम्भीर दूरगामी प्रभावों को मध्यनजर रखते हुए ऐसे बीजों की किस्मों का विकास करना पड़ेगा जो नये मौसम के अनुकूल हों. हमें ऐसी किस्मों का विकसित करना होगा जो अधिक तापमान, सूखे व बाढ़ की विभिषिकाओं को सहन करने में सक्षम हों. हमें लवणता एवं क्षारीयता को सहन करने वाली किस्मों को भी ईजाद करना होगा.
उन्नत एवं संगत मशीनरी का प्रयोग:- खेतों में उन्नत, नवीन एवं संगत मशीनरी का प्रयोग किया जाना चाहिए. छोटे खेतों में ट्रैक्टर से खेती को हतोत्साहित किया जाना चाहिए और उनके स्थान पर बाजार में उपलब्ध पॉवर टिलर और मिनी पॉवर टिलर का प्रयोग होना चाहिए. छोटे खेतों पर ट्रैक्टर से खेती करने पर खेती की लागत बढ़ जाती है और किसान कर्ज के भवर में फस जाता है. देश की औसत जोत 2.87 एकड़ (1.16HA) है. जिसमें अत्यंत छोटे किसान और लघु किसान की औसत जोत क्रमशः 0.38HA एवं 1.42 HA है. वर्ष 2010-11 की कृषि जनगणना के अनुसार अत्यंत छोटे और लघु किसान जिनकी जोत 2HA से कम है 85% कृषि जोत रखते हैं और 44% कृषि योग्य भूमि पर खेती करते हैं. इनकी खेती सबसे ज्यादा जोखिमपूर्ण होती है. ये अधिकतर कृषि मशीनरी की उपलब्धता न होने के कारण परंपरागत खेती ही करते हैं और उसके किसी कारण नष्ट होने पर कंगाली के कगार पर खड़े हो जाते हैं.
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सरकार इनका ही ध्यान नहीं रखती. सारी योजनाये इनके लिए बनाती हैं पर योजना का लाभ इन तक नहीं पहुचता. कृषि यंत्रों की सब्सिडी इन तक नहीं पहुंचती. सरकार यदि वास्तव में इन्हें लाभ देना का इरादा रखती तो आज जो करीब 6 लाख ट्रैक्टर, 60 हजार पॉवर टिलर और करीब 6 हजार मिनी टिलर की बिक्री दर्ज की जा रही है स्थिति बिलकुल इसके उलट होती. सरकार 35 HP से ऊपर वाले ट्रैक्टरों को सब्सिडी दे रही है जिनका अधिकतर व्यावसायिक प्रयोग होता है और ये विनिर्माण सेक्टर, भट्ठों पर, बालू दुलाई सरीखे कामों में प्रयोग किये जाते हैं.अगर सरकार वास्तव में किसानों के लिए फिक्रमंद है तो उसे विशुद्ध कृषि उपयोगी पॉवर टिलर और मिनी पॉवर टिलर को सब्सिडी देनी चाहिए. गौरकाबिल है की एक ट्रेक्टर की सब्सिडी में दो पॉवर टिलर पर सब्सिडी दी जा सकती है. यह पुरुष और महिला मित्रवत मशीनरी भी है.
किसान नकद फसल की खेती अधिक श्रम होने के चलते नहीं करते पर पॉवर टिलर या मिनी पॉवर टिलर से खेत और बागवानी के सारे काम किये जा सकते हैं. जिससे काफी कम समय में और कम लागत में खेती संभव हो जाती है और मुनाफा बढ़ जाता है. एक बार किसान जब मुनाफ़े का स्वाद चख लेता है तो फिर वह परंपरागत खेती के बजाय नकद फसल ही उगाता है.
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अन्य प्रबंधन :- अधिक तापमान व वर्षा की कमी से सिंचाई हेतु भू-जल संसाधनों का अधिक दोहन से बचने के लिए जमीन में नमी का संरक्षण व वर्षा जल को एकत्रित करके सिंचाई हेतु प्रयोग में लाना एक उपयोगी एवं सहयोगी कदम हो सकता है. इससे पंजाब, हरियाणा व प. उत्तर प्रदेश के बहुत से विकास खण्डों जैसी स्थिति आने से पहले ही निपटा जा सकेगा. इसके लिए किसान भाई वाटरशैड प्रबंधन के माध्यम से वर्षा के पानी को संचित कर सिंचाई के रूप में प्रयोग कर सकते हैं. इससे सिंचाई की सुविधा तथा भूजल पूनर्भरण दोनों में सहायता मिलेगी. ऐसा करने से बाढ़ की स्थिति से भी काफी हद तक लगाम लगेगी और मिट्टी के क्षरण को भी रोका जा सकेगा. सूखे की वजह से बंजर बन रहे क्षेत्रों पर भी लगाम लगेगी. गर्म जलवायु में कीट पतंगों की प्रजनन क्षमता की वृद्धि होगी जिसे जैविक नीम के पेस्ट से ख़त्म किया जा सकता है. जैविक प्रबंधन होने से उसका मानव स्वास्थ्य पर कोई हानिकारक प्रभाव भी नहीं पड़ेगा.
जलवायु परिवर्तन की स्थिति का विरोध तो नहीं किया जा सकता पर इसके कुप्रभाव को उचित रीति अपनाकर कम किया जा सकता है. किसानों की वर्तमान स्थिति से निकालकर किसानी को भी लाभप्रद बनाया जा सकता है. इसके लिए सरकार, कृषि विभाग और किसान तीनों को मिल कर चलना होगा और संगत मशीनरी का प्रयोग करना होगा.
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